इन्टरनेशनल कोड ऑफ बॉटनीकल नामन्-क्लेचर
पौधों को कोई नाम देना पुरानी पद्धति रही है। पौधों को नाम देना नामकरण (नामन क्लेचर) कहलाता है।
साधारण नाम - ये वे नाम हैं जो कि मनुष्यों के विशेष समूह द्वारा विभिन्न भाषाओं में या फिर आंग्ल भाषा में रखे गए हैं। इन नामों में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि ये सभी के द्वारा और सभी वैज्ञानिकों द्वारा नहीं समझे जाते। उदाहरण के लिए यदि हम कहते है जलकुंभी तो यह नाम इंग्लैण्ड में या अमेरिका में या चीन में नहीं समझा जाएगा, परन्तु यदि इस पौधे को हम आइकोर्निया Eichhornia कहें तो ये सभी देशों में सभी वैज्ञानिकों द्वारा समझा जाएगा। इसी तरह कुछ और साधारण नाम या देशी नाम इस प्रकार से है:-
कचनार (बौहीनिया Bauhinia). सप्तपर्ण (ऐलस्टोनिआ Alistonia), सतमूल (ऐस्पेरेगस Asparagus), सर्पगंधा (रॉल्फिमा सर्वेन्टिना Rawvolfia Serpentina)। कुछ साधारण नामों का उपयोग वैज्ञानिक नामों में भी किया गया है जैसे पुत्तरनजीवा साधारण संस्कृत नाम है जिसे वैज्ञानिक स्वरूप दे दिया गया है या फिर एंथोसैफेलस कदम्ब (Anthocephalus Cadamba) नाम का उल्लेख प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। यह वृक्ष कदम्ब के नाम से ही जाना जाता था। जैसे कि पहले लिखा गया है कि साधारण या विभिन्न भाषाई नाम सभी के द्वारा नहीं समझा जाता। इस कारण से किसी ऐसी वैज्ञानिक पद्धति का विकास आवश्यक समझा गया जो कि किसी अन्तर्राष्ट्रीय (इंन्टरनेशनल) कोड पर आधारित हो।
वैज्ञानिक नाम का विकास -
वैज्ञानिक नाम का विकास सर्वप्रथम बहुनामी (पॉलीनोमियल) पद्धति के साथ हुआ। उदाहरण के लिए "सैलिक्स प्युमिलँगस्टिफोलिआ आल्टेरी" Salix plumilangustifolla alterl, या फिर "लाइकनिस ऐल्पिना लिनिफोलिआ मल्टिफ्लोरा Lichenus alpina linifolia multiflora" आदि पॉलीनोमिअल नाम है। ये काफी जटिल एवं वैज्ञानिक कार्यों के लिए असुविधाजनक भी है।
कार्ल लीनियस ने 1953 में द्विपदनाम पद्धति (बाइनोमियल) का विकास किया। वह उनकी पुस्तक "स्पेसीज प्लॅटेरम" में विस्तार से दिया गया है। उनकी एक और पुस्तक "फंडामेन्टा बॉटेनिका" में भी, इससे पहले कुछ नामों का उल्लेख है। उनके द्वारा लिखी गई अन्य पुस्तक है "फिलौसाफिका बॉटेनिका"। लीनियस के द्वारा नाम पद्धति (नामन्क्लेचर) के लिए उपयोग में लाए गए नामों को बाद में कोड के नाम से जाना गया।
सन् 1813 में डी केडॉल द्वारा "थ्योरी ऐलिमेन्ट्री" एवं 1821 में स्ट्यूडेल द्वारा "नोमेनक्लेचर बॉटेनिकस" प्रकाशित की गई। इसमें भी नाम पद्धति (नामन्क्लेचर) को प्रतिपादित किया गया। स्ट्यूडेल द्वारा 1821 में प्रकाशित पुस्तक काफी समय तक यूरोप एवं अमेरिका में प्रचलित रही। द्विपद नाम पद्वति (बाइनोमियल नामन् क्लेचर) के कुछ प्रमुख बिन्दु निम्न प्रकार से हैं :-
(1) प्रत्येक पौधे के दो नाम होते हैं। पहला हिस्सा वंश (जीनस) के नाम का एवं दूसरा हिस्सा प्रजाति (स्पेसीज) के नाम का। उदाहरण के लिए मॅनीफेरा इंडिका। इसमें मेंनीफेरा जीनस का नाम है एवं इंडिका स्पेसीन का नाम है।
(ii) इन दोनों नाम के बाद उस व्यक्ति का नाम आना आवश्यक है जिसने सबसे पहले उस पौधे का वर्णन किया। उदाहरण के लिए मेंजीफेरा इंडिका (एल) (Mengifera indica.L) इसमें "एल" का तात्पर्य लीनियस से है। इस प्रकार के नाम अक्सर संक्षेप में लिखे जाते है।
(ⅲ) अधिकतर जीनस के नाम लैटिन में होते हैं या फिर लेटिनाईड होते हैं। इन्हें हमेशा बड़े अक्षर से प्रारंभ किया जाता है। स्पेसीज के नाम के कई स्त्रोत हो सकते हैं। जैसे कि किसी व्यक्ति का नाम (पुत्र- न्जीवा रॉक्सबर्षाइ Putranjiva roxburghii) या किसी भौगोलिक क्षेत्र का नाम (इंडिका) या फिर कोई विशेष गुण (एल्बा)। जीनस का नाम भी कभी-कभी किसी व्यक्ति विशेष के नाम से शुरू हो सकता है, जैसे कि सीजलपेनिया (Caesalpinia) या किसी साधारण नाम को ग्रहण कर लिया जाता है जैसे कि पुत्तरन्नीवा। स्पेसीज का नाम छोटे अक्षर से प्रारंभ किया जाता है।
(iv) जीनस का नाम हमेशा पहले आता है और स्पेसीज का नाम बाद में।
(v) एक पौधे के लिए जीनस का नाम एक ही होता है लेकिन स्पेसीज का एक ही नाम दो पौधों के लिए हो सकता है। जैसे कि मॅजीफेरा इंडिका एवं टेमेरिंडस इंडिका (Termarandus indica)। यहाँ पर यह जान लेना चाहिए कि मॅजीफेरा किसी दूसरे पौधे का नाम नहीं हो सकता।
(vi) कभी-कभी किसी पौधे के नाम त्रिनामी भी हो सकते हैं जैसे कि "पक्सीनिया ग्रेमिनिस एफ ट्रिटिसाई।" (Puccinia graminis of tritici)
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बॉटेनीकल कोड -
दिन-प्रतिदिन नये पौधे के विषय में ज्ञान बढ़ता गया एवं उनके नामकरण का प्रश्न उपस्थित हुन। ऐसे समय में वनस्पतिज्ञों ने एक निश्चित नामकरण की पद्धति एवं पौधों के वर्गीकरण एवं उनकी पहन की आवश्यककता अनुभव की। सर्वप्रथम लीनियस ने सन् 1737 में "क्रिटिका बॉटनिका" के नामकरण के नियमों का पालन किया। इन नियमों का रूपांतरण लीनियस ने सन् 1751 में अपनी "फिलोसोफिका बोटाला के नामक पुस्तक में किया। लीनियस के पश्चात् 1813 में डी-कॅडोल "ध्योरी ऐलिमेन्टेर डी ला बटिनिकय प्रकाशित की और उसमें वैज्ञानिक नामकरण की पद्धति प्रतिपादित की।
बॉटेनीकल कोड का विकास -
सन् 1867 में सर्वप्रथम डी-केंडोल ने कुछ नियमों का प्रतिपादन किया जो कि "डी-कैडलियन रूल्स" कहलाए। ये पहली इंटरनेशनल बॉटेनीकल काँग्रेस में बनाए गए नियम थे जो पेरिस में आमंत्रित थी इसलिए इन नियमों को “पेरिस कोड” के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में आधुनिक नामकरण पद्धति की शुरुआत यहीं से हुई। फिर इस कोड के रूपांतरण, पुनरीक्षण की आवश्यकता अनुभव हुई एवं समक समय पर विभिन्न कोड प्रतिपादित किए गए जिनमें से कुछ का विवरण निम्न प्रकार से है
(i) रोचेस्टर कोड (Rochester code) 1892
(II) वियना कोड (Vienna code) 1905 - यह कोड तीसरी इन्टरनेशनल बॉटेनीकल काँग्रेस में बनाया गया। यह कोड भी सर्वमान्य नहीं था।
(iii) अमेरीकन कोड (American code) 1807 यह कोड वियना कोड का ही रूपान्तरण था। इसे बॉटेनीकल सोसायटी ऑफ अमेरिका में संकलित किया।
(iv) टाईप बेसिस कोड (Type basis code) 1918 - बॉटेनीकल सोसायटी ऑफ अमेरिका ने ही इसे प्रतिपादित किया और यह "अमेरीकन कोड" से कुछ ही बिन्दुओं में अलग था।
(v) इन्टरनेशनल बॉटेनीकल कांग्रेस (एम्सटरडेम, Amsterdem) 1935 - ने अपने कुछ नियम सुझाये।
(vi) सन् 1950 में सातवीं इंन्टरनेशनल बॉटेनीकल काँग्रेस स्टॉक होम में आयोजित हुई और उन्होंने भी अपनी कुछ अनुशंसायें प्रस्तुत की।
(vii) सन् 1954 में आठवीं इन्टरनेशनल बॉटेनीकल काँग्रेस पेरिस में आयोजित हुई। जहाँ कुछ विचार विनिमय किया गया।
(vill) सन् 1959 में नवमीं इन्टरनेशनल बॉटेनीकल काँग्रेस माँट्रियल में आयोजित हुई यहाँ भी कुछ कुलों के नाम पर विचार हुआ।
(ix) सन् 1964 में दसवीं इन्टरनेशनल बॉटेनीकल काँग्रेस एडिनबर्ग में सम्पन्न हुई और "रूल्स ऑफ लैटिन" को अन्तिम रूप से मान्यता दी गई।
(x) सन् 1969 में ग्यारहवीं इन्टरनेशनल बॉटनीकल काँग्रेस सिएटल (Seattle) में आयोजित हुई और जिन बिन्दुओं पर विचार किया गया उन्हें "सिएटल कोड" के नाम से जाना गया। इस कोड में विशेष बात यह थी की टाटोनिम (Tautonym) को मान्यता दी गई। उदाहरण के लिए मेलस-मेलस (Malus-malus) लाइनेरिया-लाइनेरिया (Linaria-linaria) आदि।
(xi) सन् 1975 में बारहवीं इन्टरनेशनल बॉटनीकल काँग्रेस लेनिनग्राद में आयोजित हुई। इस काँग्रेस में जो बिन्दु प्रस्तुत किए गए उसे "लेनिनग्राद कोड" के नाम से जाना जाता है। इसे सन् 1975 में प्रकाशित किया गया। यह कोड तीन खण्डों में विभाजित है। पहले खण्ड में छ सिद्धान्त सम्मिलित हैं, दूसरे खण्ड में लगभग 75 अनुच्छेद है और तीसरे खण्ड में कोड के रूपान्तरण के विषय में विस्तृत विवरण दिया गया है।
नियम (दि रूल्स)
इसके अनुसार प्रत्येक प्रजाति (Species) प्रत्येक वर्गीकरण की आधारभूत इकाई है। प्रत्येक प्रजाति अपने से बड़े टेक्सा जिनका कि स्तर श्रेणीबद्ध किया गया है, में निहित है यह स्थिति निम्नांकित तालिका से स्पष्ट होती है। इस तालिका में विभिन्न टेक्सा के नाम किस तरह से समाप्त होना चाहिए यह भी बताया गया है।
उपरोक्त तालिका के अनुसार कुछ कुलों का नाम इनके जीनस के नाम के अनुसार परिवर्तित कर दिए गए है. उदाहरणार्थ-
पामी- ऐरीकेसी
क्रूसीफेरी - ब्रेसीकेसी
लेग्यूमिनोसी- फेबेसी
अम्बेलीफेरी- एपीयेसी
लेबियेटी- लेमियेसी
टाइपिफिकेशन - टाईप स्पेसीमेन पौधे का एक ऐसा आदर्श प्रतिरूप है जो कि एक हर्वेरियम सूचे पर लगा हो या यह प्रतिरूप एक क्षेत्र विशेष से हो या एक ऐसा संदर्भ जो किसी पूर्व में प्रकाशित किसके हो या फिर एक रक्षित (प्रिज़र्वड) प्रतिरूप हो सकता हैं। उदाहरण के लिए कुल ऐस्टेरेसी का टाईप प्रतिरूप जोनस एस्टर है।
इसी तरह से बेरोनिआ ऐल्मेनाई (Veronla almanii) डीकॅडोल हरबेरियम जेनेवा में सुरक्षित हैं। जब भी कोई नया पौधा एकत्रित किया जाता है तो नामकरण की पद्धति के अनुसार कोई नाम दिया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ बेरोनिआ एल्मेनाई नाम तभी दिया जाएगा जब वह डी-केंडोल हरबेरियम में सुरक्षित प्रतिरूप से मेल खाता हो।
जव भी बहुत से जेनेरा एकत्रित किए जाते हैं तब उनके नामकरण की पद्धति दो प्रकार से होती है। पहली "रेसीड्यू मैथड" और दूसरी "टाइप मैथड"।
कोड में विभिन्न "टाइप्स" की पहचान बनाई गई है। जैसे-
(a) मूल प्ररूप (होलोटाइप) - यह प्रतिरूप जिसके आधार पर वैज्ञानिक द्वारा नामकरण किया जाएगा।
(b) समप्ररूप (आइसोटाप) - होलोटाइप की दूसरी प्रति आइसोटाइप कहलाती है।
(c) सह प्ररूप (सिनटाइप)- बहुत से टाईप में से जब तक होलोटाइप का चुनाव नहीं हो जाता तब तक वे सभी सिनटाइप कहलाते हैं।
(d) लेक्टोटाइप (Lectotype)- होलोटाइप किसी कारणवश गुम जाता है या नष्ट हो जाता है तब एक आइसोटाइप को लेक्टोटाइप के रूप में चुना जाता है।
(A) अपर प्ररूप (पैराटाइप) - यह मल प्रतिरूप होता है जो कि होलोटाइप के अतिरिक्त है।
(1) नियोटाईप (Neotype) - वह प्रतिरूप है जो अन्य सभी प्रतिरूपों के खो जाने के बाद नामकरण के लिए प्रयुक्त हो।
प्राथमिकता (प्रियोरिटी) के सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार यदि एक ही प्रजाति के लिए एक से अधिक नाम प्रस्तुत किए जाते हैं तब सबसे पहले प्रकाशित मान्य नाम ही उपयुक्त होगा। उदाहरण के लिए बैंथम एण्ड हुकर ने दो पौधे पहचाने। एक "रूपिमा मैरीटाइमां" (Ruppia maritima L) एवं "रूपिआ रोस्टेलेटा" (Ruppia Rostellata koch) दूसरा नाम बाद में पता लगा। दोनों एक ही पौधे हैं। तब रूधिमा रोस्टेलेटा नाम रूषिआ मेरीटाइमा एक रूप कर दिए गए क्योंकि रूपिम मेरोटाइमा पहले प्रकाशित किया गया था. इसलिए इसमा मेरीटाइमा गया। पर्यायनाम (सिनोंनिम) तब ही कहे जाते हैं जब एक ही प्रजाति के लिए दो या अधिक नाम प्राथमिकता के सिद्धान्त के अनुसार पहले नाम को ही मान्यता मिलती है। पर्यायनाम दो प्रकार के होते है एक नॉमनक्लेचर सिनानिम और दूसरा-टेक्सॉनामिक सिनानिम।
वैध अथवा मान्य प्रकाशन -
यह प्रकाशन वह है जो कि मुद्रित रूप में हो एवं वनस्पतिक संस्थाओं में (बॉटनिकल इंसटीट्यूट्स) में वितरित किया गया हो। यह नाम तभी वैध माना जाएगा जब उसे कोड के अनुसार नाम दिया गया हो।
वैज्ञानिक का नाम
एक वैज्ञानिक नाम में तीन बिन्दु होते है। पहला जीनस का नाम दूसरा प्रजाति का नाम एवं इसके बाद लेखक या उस वैज्ञानिक का नाम जिसने मूल रूप से इस प्रजाति का विवरण दिया हो। यदि एक से अधिक वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से किसी पौधे का विवरण दिया है तब एक शब्द एट (Ate) बीच में रखा जाता है। उदाहरण के रूप में आफिंसिया कोलारडाइ ब्रिट एट रोस (offincla colardi britt ate ross) इसी तरह से यदि एक प्रजाति पहले एक जीनस में रखी गई हो और बाद में अन्य जीनस में स्थानान्तरित कर दी गई हो तो मूल लेखक का नाम ब्रेकेट में रखा जाता है और उसके बाद उस लेखक का नाम जिसने स्थानान्तरण किया हो। उदाहरण के लिए लाइनेरिया स्कूरियम (ली) मिल (Linaria scurium L. Mill.)
नामों के प्रतिधारण विकल्प एवं रद्द करने की प्रक्रिया, इसका विवरण कोड में पाया जाता है। इसके अनुसार जब एक या एक से अधिक टेक्सा को जोड़ा जाता है तो सबसे पुराने मान्य नाम को ही रखा जाता है। एक नाम तब रद्द कर दिया जाता है जब उसका कोई मतलब न निकले एवं जो मान्यता प्राप्त नहीं हो।
खेती से उत्पन्न पौधों के नाम के लिए भी नॉमन्क्लेचर के कोड का उपयोग होता है और वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जो कि अन्य पौधे के नामकरण के लिए हो। ये नाम लैटिन में होने आवश्यक नहीं है। इसी तरह से हाइब्रिड पौधों के लिए कोड में नामकरण के लिए अलग से व्यवस्था की गई है।
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